अंडा / दुर्ग //। बिहार में हुए विवादास्पद विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) की प्रक्रिया के बाद अब छत्तीसगढ़ में भी इसी तरह की कवायद शुरू हो गई है। 28 अक्टूबर 2025 से आरंभ हुई इस प्रक्रिया ने पूरे राज्य में राजनीतिक हलचल और जनचिंता दोनों को गहरा दिया है। विशेषज्ञों और सामाजिक संगठनों का कहना है कि यह प्रक्रिया जिस तेजी और सीमित समय में लागू की जा रही है, उससे लाखों हाशिए पर मौजूद नागरिकों के नाम मतदाता सूची से हटने का गंभीर खतरा है।

*बिहार से सबक न लेने पर उठे सवाल*
बिहार में इसी प्रक्रिया के पहले चरण में लगभग 65 लाख मतदाताओं के नाम सूची से हटा दिए गए थे। इनमें बड़ी संख्या में दलित, आदिवासी, गरीब मजदूर और महिलाएं शामिल थीं। कानूनी और जनदबाव के बाद ही उनमें से कुछ नामों को दोबारा जोड़ा जा सका। अब छत्तीसगढ़ में भी उसी तर्ज पर यह प्रक्रिया प्रारंभ कर दिए जाने से नागरिक संगठनों में यह आशंका बलवती हो गई है कि मतदाता सूची से बड़े पैमाने पर गलत तरीके से नाम हटाए जा सकते हैं।
*सबसे अधिक सम्भावित खतरे में ये तबके*
*दूरस्थ आदिवासी क्षेत्र*, जहां सरकारी सर्वेक्षण आज भी पूर्ण नहीं हैं और नागरिकों के पास भूमि या निवास से संबंधित आवश्यक दस्तावेज नहीं हैं।
*झुग्गी-झोपड़ी और
सार्वजनिक भूमि पर रहने वाले गरीब मजदूर, दलित और भूमिहीन समुदाय।*
*प्रवासी मजदूर*, जो काम की तलाश में अन्य राज्यों में हैं और घर पर अनुपस्थित रहने के कारण उनका नाम सूची से हट सकता है।
*अल्पसंख्यक समुदाय*, जो हाल के वर्षों में बढ़ती नफरती मुहिमों और विस्थापन से प्रभावित हैं।
*औद्योगिक परियोजनाओं*, खदानों और बांधों से विस्थापित ग्रामीण।
*महिलाएं*, जिनके नाम या पते विवाह के बाद बदल जाते हैं और वे नए पते पर पंजीकरण नहीं कर पातीं।
*अत्यंत सीमित समय सीमा और प्रशासनिक दबाव*
राज्य निर्वाचन आयोग ने इस प्रक्रिया के लिए अत्यंत सख्त और सीमित समयसीमा तय की है। 4 नवंबर से 4 दिसंबर 2025 तक बूथ लेवल अधिकारी (BLO) घर-घर जाकर फॉर्म भरेंगे। 9 दिसंबर 2025 को ड्राफ्ट मतदाता सूची जारी की जाएगी, जिसके बाद नागरिकों को केवल 9 जनवरी 2026 तक अपने नाम या किसी त्रुटि पर आपत्ति दर्ज कराने के लिए समय मिलेगा। 7 फरवरी 2026 को अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित की जाएगी।
“यह लोकतंत्र पर सीधा हमला है”
जनपद सदस्य और किसान नेता ढालेश साहू कहा कि —*
इतने विशाल राज्य में एक महीने के भीतर घर-घर सर्वे कर पाना संभव ही नहीं है। इससे सबसे ज्यादा नुकसान आदिवासी, दलित, मजदूर, प्रवासी और महिलाएं झेलेंगी। जिनके पास स्थायी पते या दस्तावेज नहीं हैं, उनके नाम आसानी से हटा दिए जाएंगे। यह प्रशासनिक चूक नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति लगती है।”
*नागरिक अधिकारों पर उठे संवैधानिक सवाल*
सामाजिक संगठनों का तर्क है कि नागरिकता और मताधिकार तय करने का अधिकार केवल भारत निर्वाचन आयोग (ECI) को है, राज्य निर्वाचन आयोग को नहीं। उनका आरोप है कि राज्य स्तर पर यह प्रक्रिया “कानूनी रूप से संदिग्ध” और संवैधानिक दायरे से बाहर है। विधि विशेषज्ञों का कहना है कि नागरिकों की पहचान तय करने का ऐसा कोई अधिकार राज्य निर्वाचन आयोग को नहीं दिया गया है, इसलिए इस प्रक्रिया की समीक्षा न्यायिक स्तर पर भी आवश्यक है।







